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यही वह गलियारा है / अज्ञेय

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जहाँ राहें मिलती हैं
आँधियाँ/राहें मिटा जाती हैं
रेत की बहिया उन्हें फिर खोल जाती है

ढूहों की ओट/दीख जाते हैं
दूर खजूर के पेड़
वहाँ चाहे जब/सब कुछ बदल जाता है :
यहाँ कभी/कुछ नहीं बदलता।

गलियारे में चालू है नाटक
एक हवा और झट
बदल जाता है पट
यह इधर-रेत में आधा दबा यह पहिया

पड़ा वह अरा-काला
इसी से मारा था कृष्ण ने कर्ण को?
इधर से गुजरती रही हैं कंजरों की गाड़ियाँ
वह उधर-मँज कर उजली-छायीं वे हड्डियाँ

ऊँटों की? इधर दूर हो गये थे काफ़िले
लादे हुए सोना/और पोस्त/और रेश्म/और नमक
लाने को उधर से दासियाँ, घोड़े, और गन्ध द्रव्य,
नमकहरामियाँ यों होता है इतिहास का शोध-

यों इतिहासपुरुष/लेता है प्रतिशोध!
इतिहास : एक निरन्तर बदलता हुआ गलियारा
जहाँ राहें मिलती हैं/और खो जाती हैं,
और फिर अपने को पा जाता है/मरु में
वसीयत मेरी छाती पर
हवाएँ लिख जाती हैं

महीन रेखाओं में अपनी वसीयत
और फिर हवाओं के झोंके ही
वसीयतनामा उड़ा कर कहीं और ले जाते हैं।
बहकी हवाओ! वसीयत करने से पहले हलफ़ उठाना पड़ता है

कि वसीयत करने वाले के होश-हवास दुरुस्त हैं :
और तुम्हें इस के लिए गवाह कौन मिलेगा
मेरे ही सिवा?
क्या मेरी गवाही तुम्हारी वसीयत से ज़्यादा टिकाऊ होगी?

(टीप में मिली इस कविता पर काम पूरा नहीं हो सका था,लेकिन यह इसी श्रृंखला की कविता है।)