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मन ही बड़ा अपना दुश्मन है / देवी नांगरानी

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मन ही बड़ा अपना दुश्मन है
सोचों की बाहम अनबन है

जब दुख ही है दुख का मदावा
फिर क्या खुशियों में अड़चन है

जिसके लिए औरों से लड़ी मैं
वो मेरा जानी दुशमन है

जो ग़ैरों को अपना कर ले
समझो उसमें अपनापन है

अक्स लड़ा है आईने से
कैसा ये दीवानापन है

महकी-महकी फिरती ‘देवी’
क्या तेरे दिल में मधुबन है