स्निग्धा बिछलती थी मेरे अंग से / तारा सिंह
मेरे प्राण, मन को पीड़ा से बचने की
तब कोई राह नहीं मिलती , जब
तृषा, पीछे से मेरी बाँह पकड़कर मुझे
खींच, अपने हृदय क्षितिज में बनी
स्मृतियों की संचित उस छाया में ले जाती
जहाँ, मैं कभी अपूर्व यौवना, रूप-रंग
रसपूर्ण स्वर्ण में घुली, साकार कमल थी
मेरे यौवन की मुकुल मालती में
कस्तूरी मृग सी सुगंध रहा करती थी
समीर, छूने आहें भरता था
दीप्ति शोभा, अरुण किरणें सी
मेरे चारो ओर नाचा करती थीं
मत्त त्रिभुवन पूछा करता था, अरि,ओ !
रक्त- मांस की मूर्ति, सच –सच कहना
धरा पर आने के पहले,तू कहाँ रहती थी
तेरी आँखें इस जगत की नहीं लगतीं
तू कवि के अनंत कल्पना की है मूर्ति
तेरी किसलय से अधर पर, जग की
आँखों की है लाली खेल रही
ओ! तप्त नर की समस्त संचित आभा सी
दीखने वाली, तू एक फ़ूल में इतने
तरह की गंध कहाँ से भर ले आयी
बजती थी जब मेरे पाँवों की पाजेब
सुन आवाज, सुरेन्द्र सहम-सहम उठता था
सुबह का आसमां पर आया सूरज, लौटकर
जाने का नाम नहीं लेता था
स्निग्धा बिछलती थी मेरे अंग- अंग से
जब लेती थी अंगराई, मकरंद झड़ा करता था
मेरी काली-काली अलकों में
सुख ललकों के प्राण तल से, त्रिकाल
सुरभि की ऊँची -ऊँची लहरें उठा
करती थीं, जिसके ज्वलंत वेगों
के आगे, शांति मलिन दीखती थी
आज चिंता करती हूँ मैं जितनी
उस अतीत की, उतनी ही हृदय
अनंत में दुख की रेखाएँ बनतीं
समझ में नहीं आता, दुनिया से बेखबर
बहने वाली मदमत्त सरिता कैसे सूख गई
कैसे, जिन पत्तियों पर सूरज स्वयं
आकर, ऋषि की कामेच्छा से नित
विश्राम किया करता था,उसे हल्की
हवा उड़ाकर,अपने संग कैसे ले गयी
नव-नव दुख की ज्वाला कराल से
देवों की सृष्टि विलीन होती रही
सूरज इसे देखता कैसे रह गया