Last modified on 30 अप्रैल 2014, at 13:01

जब मिलते हो तुम / शैलजा पाठक

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:01, 30 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शैलजा पाठक |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जब नहीं सोचती हूँ तुम्हे
तब मैं कुछ नही सोचती
पैर के नखों से कुरेदती हू
जमीं का पथरिलापन
तब तक जब तक
अंगूठे दर्द से बिलबिला ना उठे

जब मैं नहीं मिलती तुमसे
तब मैं किसी से नही मिलती
जरा से बादलों को खीचकर
ढक देती हूँ आईना
तुम धुंधले हो जाते हो

और जब मिलते हो तुम
मैं आसमानी ख्वाबो में लिपटी
पूरी दुनिया को बदला हुआ
देखती हूँ की जैसे पेड कुछ बड़े और हरे हो गए

पोखर का पानी साफ़ है
बिना मौसम ही खिले हैं खूब सारे
कमल दहकते रंग के
मेरी आँखों में खूब सारी
जिंदगी छलक रही है
मेरे हाथों में मेहदी का
रंग और महक

ऊपर आसमान में उड़ते
दो पतंग एक दूसरे से
गले मिलते हुए

जब मैं तुमसे मिलती हूँ
तब मैं मिलती हूं
अपने आप से...