चाँद से थोड़ी-सी गप्पें / शमशेर बहादुर सिंह
(एक दस-ग्यारह साल की लड़की)
गोल हैं खूब मगर
आप तिरछे नजर आते हैं जरा।
आप पहने हुए हैं कुल आकाश
तारों-जड़ा;
सिर्फ मुँह खोले हुए हैं अपना
गोरा चिट्टा
गोल मटोल,
अपनी पोशाक को फैलाए हुए चारों सिम्त।
आप कुछ तिरछे नजर आते हैं जाने कैसे
- खूब हैं गोकि!
वाह जी वाह!
हमको बुद्धू ही निरा समझा है!
हम समझते ही नहीं जैसे कि
आपको बीमारी है:
आप घटते हैं तो घटते ही चले जाते हैं,
और बढ़ते हैं तो बस यानी कि
बढ़ते ही चले जाते हैं-
दम नहीं लेते हैं जब तक बिलकुल ही
गोल न हो जायें,
बिलकुल गोल।
यह मरज आपका अच्छा ही नहीं होने में
आता है।
यह न होता तो, कसम से, हम सच
कहते हैं-
आपसे शादी कर लेते-
फौरन!
आप हँसते हैं, मगर
यों भी दिल खींच तो लेते ही हैं आप
(हाँ, जी) समुंदर की तरह,
ओ' मैं बेचैन-सी हो जाती हूँ
उसकी लहरों की तरह;
ज्वार-भाटा-सा अजब, जाने क्यों
उठने लगता है खयालों में मेरे
खाहमखाह!
जाओ, हटो!
ऐसे इनसान को हम प्यार नहीं करते हैा
मुँह-दिखाई ही फकत
जो मेरा सरबस माँगे,
और फिर हाथ न आये;
मुफ्त कविताएँ सुने,
अपने दिल की न बताये;
जब भी आये,
यूँ ही उलझाये!
ऐसे इनसान को हम आखिर तक
प्यार नहीं करते हैं,
हाँ! समझ गये?