Last modified on 21 मई 2014, at 18:56

माधवजू जो जन तैं बिगरै / सूरदास

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:56, 21 मई 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

माधवजू जो जन तैं बिगरै।
तौ कृपाल करुनामय केसव प्रभु नहिं जीय धर॥
जैसें जननि जठर अन्तरगत सुत अपराध करै।
तो जतन करै अरु पोषे निकसैं अंक भरै॥
जद्यपि मलय बृच्छ जड़ काटै कर कुठार पकरै।
त सुभाव सुगंध सुशीतल रिपु तन ताप हरै॥
धर विधंसि नल करत किरसि हल बारि बांज बिधरै।
सहि सनमुख तौ सीत उष्ण कों सो सफल करै॥
रसना द्विज दलि दुखित होति बहु तौ रिस कहा करै।
छमि सब लोभ जु छांड़ि छवौ रस लै समीप संचरै॥
करुना करन दयाल दयानिधि निज भय दीन डर।
इहिं कलिकाल व्याल मुख ग्रासित सूर सरन उबरे॥