भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
काहे रे बन खोजन जाई / नानकदेव
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:46, 22 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुरु नानकदेव |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पन्ना बनाया)
काहे रे बन खोजन जाई।
सरब निवासी सदा अलेपा, तोही संग समाई॥१॥
पुष्प मध्य ज्यों बास बसत है, मुकर माहि जस छाई।
तैसे ही हरि बसै निरंतर, घट ही खोजौ भाई ॥२॥
बाहर भीतर एकै जानों, यह गुरु ग्यान बताई।
जन नानक बिन आपा चीन्हे, मिटै न भ्रमकी काई॥३॥