भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ब्राह्मण न जानते भेद / सरहपा

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:28, 28 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरहपा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatPad}} <poem> ब...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ब्राह्मण न जानते भेद। यों ही पढ़े ये चारो वेद।
मट्टी पानी कुश लेइ पढ़ंत। घरही बइठी अग्नि होमंत।
काज बिना ही हुतवह होमें। आँख जलावें कड़घए धूएँ।
एकदंडी त्रिदंडी भगवा भेसे। ज्ञानी होके हंस उपदेशे।
मिथ्येहि जग बहा भूलैं। धर्म अधर्म न जाना तुल्यैं।
शैव साधु लपेटे राखी। ढोते जटा भार ये माथी।
घर में बैठे दीवा बालैं। कोने बैठे घंटा चालैं।
आँख लगाये आसन बाँधे। कानहिं खुसखुसाय जन मूढ़े।
रंडी मुंडी अन्यहु भेसे। दीख पड़त दक्षिना उदेसे।
दीर्घनखी यति मलिने भेसे। नंगे होइ उपाड़े केशे।
क्षपणक ज्ञान विडंबित भेसे। आतम बाहर मोक्ष उदेसे।