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खाते पीते सुरत रमंते / सरहपा

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खाते पीते सुरत रमंते। आलिकुल बहुलहु चक्र फिरंते।
एवं सिद्धि जाइ परलोकहिं। माथे पाद देइ भवलोकहिं।
जहँ मन पवन न संचरै, रवि शशि नाहिं प्रवेश।
तहँ मूढ़! चित्त विश्राम करु, सरह कहेउ उपदेश।
आदि न अंत न मध्य तहँ, ना भव ना निर्वाण।
एहु सो परम महासुख, ना पर ना अप्पान।