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हरि अवतरे कारागार / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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हरि अवतरे कारागार॥
दिसि सकल भइँ परम निरमल अभ्र सुषमा-सार।
लता बिटप सुपल्लवित पुष्पित नमत फल भार॥
सुखद मंद सुगंध सीतल बहत मलय बयार।
देवगन हरषत सुमन बरसत करत जयकार॥
बिनय करत बिरंचि नारद सिद्ध बिबिध प्रकार।
करत किंनर गान बहु गंधरब हरष अपार॥
संख-चक्र-गदा-नवांबुज लसत हैं भुज चार।
भृगुलता कौस्तुभ सुसोभित, कांति के आगार॥
नौमि नीरद नील नव तनु, गले मुकताहार।
पीत पट राजत, अलक लखि अलिहु करत पुकार॥
परम बिस्मित देखि दंपति छबिहिं अमित उदार।
निरखि सुंदरता अपरिमित लजत कोटिन मार॥