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धन्य घरी, धनि भादौं मास / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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 धन्य घरी, धनि भादौं मास।
 धनि आठैं तिथि, पख उजियारौ, धनि अभिजित नछत्र प्रकास॥

 प्रगटीं जा में जग की स्वामिनि, नित हरि-भामिनि सब सुख-मूल।
 भयौ प्रकास अखिल जन-मन-नभ मिटी ताप तीनहुँ की सूल॥

 घर-घर में छायौ सुख सुचि अति, घर-घर भ‌ए मंगलाचार।
 अति उछाह सब मान नारि-नर नाचत-गावत सजि सिंगार॥

 भानु नृपति अति मगन परम सुख करत अमित मनि-हेम सुदान।
 अति उदार, धन-धान्य लुटावत, ललित लली सुख-हित मतिमान॥

 खग, मृग, भृंग, भुजंग-जीव सब आनँद-मगन भूलि निज बात।
 मन अनुभवत परम सुख, बिनु रितु, जड़ तरु लता प्रफुल्लित गात॥

 मारुत मंद-सुगंध बहत नभ, निरमल सीतल तेज अपार।
 बिकसी प्रकृति आज चहुँ दिसि लखि आद्य प्रकृति कौ नव अवतार॥

 आ‌ई जग के पावन कारन, सुख-निधि कौं अतिसय सुख-देन।
 परिनत भयौ कलुष तजि रतिमय पावन परम अपावन मैन॥

 परब मनावहु, गावहु, नाचहु आज समुद सब तजि मद-गान।
 बाँटहु सबै बधा‌ई मिलि कह-जय कीरति, जय-जय बृषभान॥