भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम ही मेरी हो धन-दौलत / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:52, 8 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(राग तोड़ी-तीन ताल)

तुम ही मेरी हो धन-दौलत, तब मैं निर्धन क्यों होऊँगा।
तुम हो मेरे सहृदय साजन, तब मैं निर्जन क्यों होऊँगा॥
तुम हो मेरे जब पूर्ण स्वास्थ्य, तब मैं रोगी क्यों होऊँगा।
तुम हो मेरे भर्तार आप, तब मैं भोगी क्यों होऊँगा॥
तुम हो मेरी निश्चित आशा, तब मैं निराश क्यों होऊँगा।
तुम हो मेरी जब ऋद्धि-सिद्धि, तब मैं हताश क्यों होऊँगा॥
तुम हो मेरे जब निर्भय पद, तब मैं भयवश क्यों होऊँगा।
तुम हो मेरे स्नेही स्वामी, तब मैं परवश क्यों होऊँगा॥
तुम हो मेरे जब मनके मन, तब मैं बे-मन क्यों होऊँगा।
तुम हो मेरे आनन्द नित्य, तब मैं अनमन क्यों होऊँगा॥
तुम हो मेरे जब नाथ साथ, तब मैं अनाथ क्यों होऊँगा।
तुम हो मेरे जब सबल हाथ, तब मैं निहाथ क्यों होऊँगा॥
तुम हो मेरे शुभ शुचि सद्‌‌गुण, तब मैं दुर्गुण क्यों होऊँगा।
तुम हो मेरे निर्गुण आत्मा, तब मैं सह-गुण क्यों होऊँगा॥