भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बिखरते रिश्ते / सुलोचना वर्मा
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:19, 12 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुलोचना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पन्ना बनाया)
नही बुनती जाल इस शहर में अब मकड़ियाँ
लगे हुए हैं जाले साज़िश के हर दीवार पर
बिखर गये हैं रिश्ते, अपनो की ही साज़िशो से
बस यादें टॅंगी रह गयी हैं घरों की किवाड़ पर
टुकड़े हुए रिश्तों के, ज़मीन के बँटवारे में
एक ही उपनाम है इस शहर के हर मीनार पर
क्यूँ बेच रहे हो आईने इस नुक्कर पर तुम
ये अंधो का शहर है, और धूल हर दीदार पर