भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रत्युत्तर / सुलोचना वर्मा

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:34, 14 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुलोचना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बादलों के बीच से
चाँद है निकल आया
चाँद की पहली किरण
हृदय के धरातल पर उतरी
विस्मित सी मेरी काया
उस दरख़्त को है देख रही
जिसे अंकुरित होने से पहले वो
मन के रेगिस्तान पर रख आई थी

रात्रि के प्रथम प्रहर मे, मूक हूँ, स्तब्ध भी
मेरे अंतःकरण पर एक
प्रश्ना चिन्‍ह है उभर आता
क्या रेत की धरती पर भी
ये कभी है संभव होता?
विचलित मेरा हृदय
अब अनायास ही मौन हो जाता
अरे! वो आँसू!
जिन्हे हमारी पथरीली आँखो ने रोका था
फिसल के सीधे
हृदय धरतल पर ही तो गिरे थे

मेरी विस्मित काया को
प्रत्युत्तर है मिल गया
चाँद अब चलते चलते
बादलों मे छुप गया
रात्रि का अंतिम प्रहर है
मूक हूँ, स्तब्ध नही !