भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
माँ / सुलोचना वर्मा
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:37, 14 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुलोचना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पन्ना बनाया)
चूल्हे की आग में खुद को तपाती हुई
बच्चे की ग़लतियाँ ममता में भुला रही है
दूध रोटी से लेकर, मंदिर के घंटे तक
स्नेह की चाशनी में, बचपन घुला रही है
बारिश के मौसम में, अंदर से गीला होकर
बच्चे को बचाकर खुद को सिला रही है
बिगड़ ना जाए वो, कुछ ऐसा ही सोचे
उसे डाँटकर माँ खुद को रुला रही है
अंधेरा है आगे, कहीं डर ना जाए बच्चा
कतरा कतरा माँ खुद को जला रही है
बहुत खेल चुके, अब शाम हो गयी है
आ जाओ पास माँ तुम्हे बुला रही है