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विश्व-चराचरमें है व्यापक नित्य / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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(राग भीमपलासी-ताल कहरवा)
 
विश्व-चराचरमें है व्यापक नित्य सत्य-चित आत्मा एक।
देखें उसे सभी कालोंमें, सबमें रखकर दृष्टि विवेक॥
सबके सुख-हितको ही समझें नित्य ‘स्वार्थ’ निज सुख-हित-रूप।
‘स्व’ को रखें न सीमित, उसका करें सदा विस्तार अनूप॥
तन-मन-धनसे कभी न चाहें-करें किसीका तनिक अनिष्ट ।
त्याग सर्वविध हिंसा, सबका करें सदा ही मंगल इष्ट ॥
अति हितकर शुचि ‘त्याग’ तथा ‘कर्तव्य’ करें हम अंगीकार।
मोह-ममत्व छोडक़र, कर दें त्याग सहज ‘धन’, ‘पद’, ‘अधिकार’॥
करें न संग्रह कभी वस्तु‌एँ, बनें न असत्‌‌-‌अभाव-दरिद्र।
फैसन-व्यसन त्याग, रखें जीवनको सादा, शान्त, पवित्र॥
दें अभावग्रस्तों को प्रमुदित, सविनय अर्थ-भूमि-समान।
विद्या-बुद्धि-सुसमति-‌आश्रय, जो कुछ हम दे सकें अमान॥
मानव-दानव-पशु-पक्षी-कृमि-सबमें नित देखें भगवान।
बरतें निज वेषानुसार, पर करें न कभी अहित-‌अपमान॥
सभी वस्तु‌एँ हैं स्वामीकी, हमें किया अधिकार प्रदान।
रखें, सँभालें, करते रहें नियमतः प्रभु-सेवामें दान॥
जहाँ अभाव वस्तु जिसका, हैं माँग रहे उसको भगवान।
प्रभुको प्रभुकी वस्तु नम्र हो, दे दें, करें नहीं अभिमान॥
सेवा करें सदा ही सबकी, शुद्ध ईश-सेवाके अर्थ।
सेवाका शुचि भाव बढ़े, प्रभु रखें सदा सेवार्थ समर्थ॥
करें न किसी पवित्र ‘धर्म’ पर, ‘मत’ पर तनिक कभी आक्षेप।
कहें-करें कुछ भी न कभी, जिससे हो पर-मनमें विक्षेप॥
कर सकते हैं न्याय्य अर्थ-‌अधिकार-सुरक्षा-हेतु प्रयास।
पर वह वैध, शास्त्र-समत हो, रखें ईश्वरपर विश्वास॥
कभी न लें आश्रय अधर्मका, कभी न करें सत्यका त्याग।
तन-धन जायँ, न जाय धर्म, सत्य, प्रभुपर श्रद्धा-‌अनुराग॥
जीवनका उद्देश्य एक हो पावन प्रभु-पद-प्रीति अनन्य।
प्रभु-पूजाकी सामग्री बन, कार्य, विचार, वस्तु हों धन्य॥