भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम डरते हो पीड़ाओं से / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:11, 16 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महावीर प्रसाद 'मधुप' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम डरते हो पीड़ाओं से, मैं उनसे प्यार किया करता।

उर में आकर दे जाती है हर पीर नई मुस्कान मुझे,
पीड़ा की सिहरन से मिलते, नित नूतन कोमल गान मुझे।
पीड़ा सहने से ही मन के मृदु भाव सरस बन पाते हैं,
पीड़ा से ही मानव के पथ की होती पहचान मुझे।
मैं पीड़ा से निज गीतों में रस का संचार किया करता।
तुम डरते हो पीड़ाओं से, मैं उनसे प्यार किया करता।

पीड़ा से ही मिलता अभिनव चेतनता का वरदान सदा,
पीड़ा में ही बसते भावुक भक्तों के हैं भगवान सदा।
पीड़ा में ही परखा जाता मानव के शुभ्र विचारों को,
सोना तप-तप कर ही जग में, पाता है आदर-मान सदा।
मैं इसीलिए पीड़ाओं का स्वागत-सत्कार किया करता।
तुम डरते हो पीड़ाओं से, मैं उनसे प्यार किया करता।