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प्रतीक्षा के पल / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
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युग बन-बन कर बीता करते हैं कठिन प्रतीक्षा के पल॥
पलकों-पलकों में ही कितनी कट जातीं नीरव रातें,
फीके लगते सब चाँद और वह चाँदी की बरसातें।
तकते-तकते ही राह सुकोमल आँखें पथरा जातीं,
करते-करते ही याद हृदय सहता अनगणित आघातें।
सावन-भादों सी झड़ी दृगों से लग जाती है अविरल।
युग बन-बन कर बीता करते हैं कठिन प्रतीक्षा के पल॥
जर्जर मानस तन्त्री से प्रतिपल यही निकलता स्वर है,
विश्वास किसी को देने से विष देना ही हितकर है।
‘हाँ’ से तो ‘नहीं’ भली है जो क्षण को होती दुखदायी,
भटकाता क्षण-क्षण में अनन्त यह आशा का सागर है।
भावुक मन के विरहानल में, अरमान सभी जाते जल।
युग बन-बन कर बीता करते हैं कठिन प्रतीक्षा के पल॥