जब बढ़ जाता है व्यथा-भार जन-जीवन में,
जब मानवता का ही विकास रुक जाता है।
जब दीप साधना का, निर्वापित-सा होता,
जब उन्नति का शाश्वत प्रयास रुक जाता है॥
जब निरुत्साह, निष्क्रियता के दुर्बल विचार
कोमल मानव-मन पर काबू पा जाते हैं।
पुरुषार्थहीन, जब भाग्यवाद के दीन भाव,
सारे समाज को जर्जर पंगु बनाते हैं॥
जब आशा की मुस्काती कोमल कलियों को,
तूफान निराशा का विनष्ट कर देता है।
जब कर्मयोग के ज्योतिर्मय पावन-पथ को,
घिर कर प्रमाद का अन्धकार ढक लेता है॥
तब नवप्रकाश देता अतीत का चित्र हमें
सोये समाज को वह झकझोर जगाता है।
उन महामहिम सत्पुरुषों का इतिहास हमें,
भूले स्वलक्ष्य की प्रतिपल याद दिलाता है॥
उस महापुरुष की पुण्य स्मृति फिर जगी आज,
जिसने भू पर ही स्वर्ग लोक रच डाला था।
जिसने आरोपित कर स्वजाति के बिरवे को,
खुद स्नेह-सलिल से सींच-सींच कर पाला था॥
नित रंग-बिरंगे फूलों से सज्जित होकर,
यह विटप विश्व में निज सौरभ बिखराता था।
मधु दान किया करता मधुपों को मुक्त हृदय,
इसकी समता कब कल्पवृक्ष कर पाता था॥
रहता था पुष्पित और फलित सब ऋतुओं में,
हो पाता इससे रुष्ट कभी मधुमास नहीं।
आश्रय पाते सब इसकी शीतल छाया में,
आ सकता था भूले भी पतझर पास नहीं॥
था दूर-दूर तक देशों में इसका प्रभाव,
जगती सारी इसकी गुणावली गाती थी।
वैभव विलोक कर था कुबेर भी नत होता,
आभा लख कर वह अमरावती लजाती थी॥
पर आज हमारे सन्मुख है कुछ दृश्य और,
दिखलाई पड़ती कहीं बसन्त-बहार नहीं।
वह हरा-भरा पादप समाज का सूख चला,
वह सौरभ, वह सौन्दर्य और रस-धार नहीं॥
हम दाता बन कर, रहे दान करते जग को,
पर आज याचकों से हम खुद ही दीन हुए।
कर्तव्य-मार्ग से दूर हुए जाते दिन-दिन,
अविवेकी बन कर, बल-पौरुष से हीन हुए।
हम अग्रसेन के वंशज होकर पिछड़ रहे,
निष्क्रिय बन कर, कर रहे पतन का आवाह्न।
सहयोग स्नेह समता को सबने भुला दिया,
दृढ़ होते जाते नित्य विषमता के बन्धन॥
हम आज प्रतिज्ञा करंे सभी आओ मिल कर,
संकीर्ण विचारों का उर से परित्याग करें।
जो बना हुआ है दूषित वातावरण आज,
कर दूर उसे, सब आपस में अनुराग करें॥
अब चलें अग्र होकर सुधार के पथ पर हम,
श्रम-शिक्षा से सब दुःखों का अवसान करें।
जय के निनाद से डोल उठें फिर दिग्-दिगन्त,
अवनत समाज का फिर अभिनव उत्थान करें॥