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बाबूजी के लिए / सुधाकर, सतीश, कुसुमाकर

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हरित भूमि हरियाणा प्रदेश का प्राचीन नगर भिवानी, जिसकी पावन धरती ने अनेक प्रतिभाओं व विभूतियों को जन्म दिया। कितने ही साहित्य-सेवियों वे कवियों ने यहां जीवन पाया। श्री तुलसीराम शर्मा ‘दिनेश’, श्री माधव मिश्र व और भी कितने ही जिन्होंने अपने अमूल्य साहित्य के द्वारा संपूर्ण भारत वर्ष में भिवानी नगर को गौरवान्वित किया। इसी शृंखला में एक नाम है- श्री महावीर प्रसाद ‘मधुप’, जो हिन्दी पद्य रचना के सशक्त हस्ताक्षर हैं।

आपने अपने काव्य जीवन में अनेक तरह के छंदों का प्रयोग किया, जिनमे गीत, ग़ज़ल, ख़याल, मुक्तक, घनाक्षरी, दोहा आदि प्रमुख हैं। आपने जो भी लिखा, उत्कृष्ट और सराहनीय लिखा। काव्यविदों ने आपकी रचनाओं की मुक्तकंठ से प्रशंसा की। मात्र 20-22 वर्ष की आयु में ही आपने भिवानी नगर के साहित्य-सेवियों के बीच अपना सम्मानजनक स्थान बना लिया था। आप विलक्षण प्रतिभा के धनी, अद्भुत छंद शिल्पी व अनुपम रचनाकर रहे। आपकी रचनाएं तपते मरूस्थल में सावन की शीतल फुहारों की तरह है। आप एक मूक साधक एवं प्रचार-प्रसार से कोसों दूर रहे। एक महान कवि की उक्ति है-

केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए

उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए

आपने अपनी रचनाओं में इस बात का सदैव ध्यान रखा। वैसे तो आपने कई कवषयों पर रचनाएं लिखीं, लेकिन आपके प्रिय विषय राष्ट्रीय, सामाजिक व महापुरूषों की गौरव-गाथाएं रही।

कवि का चिन्तन केवल स्वयं तक ही सीमित नहीं होता। अपितु उसकी सोच सम्पूर्ण राष्ट्र एवं समाज के प्रति होती है। उसकी रचनाएं दर्पण की तरह होती हैं। जिसमें समस्त समाज व राष्ट्र का प्रतिबिंब दिखाई देता है। एक साधारण व्यक्ति घोर सामाजिक विषमता के कारण अपना सारा जीवन कष्ट और आभावों में गुज़ार देता है। उसकी पीड़ा से कवि का भावुक मन आहत होता है और वही वेदना उसकी रचनाओं में झलकती है।

यद्यपि आपको कविता से अगाध प्रेम था, कितने ही पत्र-पत्रिकाओं के आप नियमित सदस्य रहे। हज़ारो पुस्तकों का आपके पास सगं्रह था, लेकिन कभी भी आप अपने पारिवारिक दायित्वों से विमुख नहीं हुए। वे आपके जीवन में सर्वोपरि रहे। प्रातः जल्दी उठकर तैयार होना आपकी आदत थी। प्रायः सवेरे के कुछ घण्टे और रात का कुछ सम के काव्य साधना में लगाते थे।

पिछली पुस्तक ‘माटी अपने देश की’ में कई तरह की कविताओं का समावेश था और प्रस्तुत संग्रह केवल आपकी ग़ज़लों का संकलन है। जैसा की पुस्तक का नाम है- कारवाँ उम्मीद का’ उसी संदर्भ में आपकी एक सुन्दर रचना प्रसंगवश दी जा रही है-

आशाओं का दीप सँजोकर निर्मल मन में

श्रम को जो चिर-सहचर कर लेते जीवन में

अमित अभावों में भी रहतीं अमिट उमंगें

उठती उर में नित्य नई विश्वास तरंगें

निश्चित यह विपदाओं का तम तोम ढलेगा

स्वर्ण सवेरा संग लिए सूरज निकलेगा

इन्ही आशाओं के साथ आपको कोटि-कोटि नमन...!

-विनीत पुत्र

सुधाकर, कुसुमाकर, सतीश