Last modified on 29 जून 2014, at 10:44

छोटे शहर की एक दोपहर / केदारनाथ सिंह

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:44, 29 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केदारनाथ सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हजारों घर, हजारों चेहरों-भरा सुनसान
बोलता है, बोलती है जिस तरह चट्टान

सलाखों से छन रही है दोपहर की धूप
धूप में रखा हुआ है एक काला सूप

तमतमाए हुए चेहरे, खुले खाली हाथ
देख लो वे जा रहे हैं उठे जर्जर माथ

शब्द सारे धूल हैं, व्याकरण सारे ढोंग
किस कदर खामोश हैं चलते हुए वे लोग

पियाली टूटी पड़ी है, गिर पड़ी है चाय
साइकिल की छाँह में सिमटी खड़ी है गाय

पूछता है एक चेहरा दूसरे से मौन
बचा हो साबूत-ऐसा कहाँ है वह - कौन?

सिर्फ कौआ एक मँडराता हुआ-सा व्यर्थ
समूचे माहौल को कुछ दे रहा है अर्थ