भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कंठ रुमाल घुटन्ना / बृजनारायण शर्मा

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:29, 24 दिसम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बृजनारायण शर्मा |संग्रह=बाँच रहा यादों का लेखा / बृजना...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कंठ रुमाल घुटन्ना लुंगी कमर बंध गोफन

का कस कर, मीलों दूर छोड़ घर अपना

इस अनजान शहर में आया लेकर सपना

उदर-पूर्ति का, नए वस्त्र पहनेगा, मोदन

मन का होगा, ग़ज़ब हो गया इस बस्ती में

लम्बी-लम्बी लगी कतारें कैरोसिन की

दुकानों पर, मारी जाती आधे दिन की

मज़दूरी, मतलब नहीं किसी से, मस्ती में

अपनी ही रहते लोग यहाँ के, नाम नहीं

कोई भी लेता, हम से सब मामा जान

करते हैं व्यवहार ढोर-सा, हम अज्ञान

भाव में जीते, चालाकी से काम नहीं

ले पाते बिल्कुल, इस से अच्छा अपना घर

था, सपने मिले ख़ाक में सब इधर आकर !