तुष्ट-सम्पुष्ट छपास का शौकिया शोकगीत / आर. चेतनक्रांति
कविता लिखने के सौ कारण थे
और छपने का एक भी नहीं
फिर भी मैं छपा
- -एक भाशःआ के डूबते टापू के सारे बाशिन्दे समुद्र के सारे सीप, सारे मोती
- क्योंकि अपनी अलमारी के ताखे में रख लेना चाहते थे
और क्योंकि मैं भी उनमें से एक था
चारों तरफ़ अफ़रा-तफ़री मची थी
शब्दों का अपने अर्थों से रिश्ता
देवर-भाभीनुमा मज़ाक का हो रहा था
अन्तिम तौर पर सब-कुछ अगम्भीर था
कुछ भी ऎसा न था
जिसके मक़सद अपनी अश्लीलता में जग-ज़ाहिर न हों
पुरस्कार-समितियों के सदस्य
और व्यक्त्तित्व्वान आलोचक
कवियों के सपनों में कविताएँ डिक्टेट कर रहे थे
और जागा हुआ कवि
बर्फ़-सी सफ़ेद अपनी नींद की चट्टान से कुछ भी तोड़ नहीं पा रहा था
- -कठिन आसन में लेटा वह
- आत्मा को निचोड़ता और ख़ून थूकता था
- -कठिन आसन में लेटा वह
तो ऎसे में छप जाने के अलावा और कोई चारा न था
हालाँकि छपना आसमान के फटे वितान को सिलना नहीं था
जिसका ज़िक्र कविता में किया गया था
वह छाती में रखे पत्थर का सरकना भी नहीं था
जिस पर नाख़ून खरोचने से कविताएँ उतरती थीं
वह उस मर्दाना अट्टहास की नफी भी नहीं था
जिसके तले कमज़ोरदिल, ग़रीब और जनाने पानी हुए जाते थे
फिर भी छपना जरूरी था
क्योंकि छपने के बाद चिंता कम हो जाती थी
क्योंकि छपने के बाद कविता कंक्रीट का खम्भा हो जाती थी
- जिसे जमीन में गाडकर एक छत उस पर टांग सकते थे
क्योंकि छपना दरअसल समाज में शामिल हो जाना था
और समाज कुछ यूँ था कि वह शक्ति के, सत्ता के और संप्रभुता के अनेक चेहरों का
- संग्रहालय तो था ही। इसके अलावा उसने भय का रसायन तैयार किया था
जिसमें आत्मा के बाकी हर चेहरे को पिघलाकर घोल दिया गया था
वहाँ आधे डरने वाले थे और आधे डरानेवाले
- - इस तरह वहां रहने के लिए रिहायश और आने- जाने के लिए एक
- सीधा रास्ता बनता था
छपना भी डरनेवालों से डरानेवालों में चले जाना था
डर-डरकर अनन्त तक जीना मुश्किल था
(और जीना तो अनन्त तक ही था)
इसलिए हड़बड़ाकर मैं छपा
और छपते ही मैंने डरनेवालों की एक पूरी फसल दॆखी
जो छपने के लिए बस पकी खड़ी थी
एक जाती हुई भाषा की शायद आख़िरी खेप
जो प्रतिबद्धता की संकीर्णता से उकताकर
उदार-उदार हुए जाते बुजुर्गों की
असफल केंचुल पहन हथियाए हुए विचारों से नई सदी को जीतने चल पड़ी थी
उनके पास कुछ भी न था
सिवा उन कमन्दों के
जो मीडिया-महान जीवित-अजीवित पुरखों ने
राजमहल की खिड़कियों में डाली थीं
वे सबके सब दिल्ली चले आ रहे थे
और भव्य बरामदों में खड़े
एक के साथ हाथ से, एक के साथ आँख से और एक के साथ कान से बतिया
रहे थे
- यह बहुमुखी प्रतिभाओं का बहुधन्धी-बहुमंज़िला
- संवाद था जो उस चुप्पी के गिर्द ईंट-दर-ईंट
- दहाई-ब-दहाई बन रहा था जो ईश्वर ने और राजाओं ने साधी थीं
और भीतर बड़ी-बड़ी अकादमियाँ
क़लम के नख-दंत-विहीनों को
दुर्घटना कॆ ख़ामोश, निष्क्रिय तमाशबीनों को
उनके संयम के जवाब में प्रशस्तियाँ बाँट रही थी