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उपदेशसाहस्री / उपदेश ४ / आदि शंकराचार्य

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अहंप्रत्ययबीजं यदहंप्रत्ययवत्स्थितम्।
 ::नाहंप्रत्ययवह्न्युष्टं कथं कर्म प्ररोहति॥

दृष्टवच् चेत् प्ररोहः स्यान् नान्यकर्मा स इष्यते।
 तन्निरोधे कथं तत् स्यात् पृच्छामो वस्तदुच्यताम्॥

देहाद्यारम्भसामर्थ्याज् ज्ञानं सद्विषयं त्वयि।
 ::अभिभूय फलं कुर्यात् कर्मान्ते ज्ञानमुद्भवेत्॥

आरब्धस्य फले ह्येते भोगो ज्ञानं च कर्मणः।
 ::अविरोधस्तयोर्युक्तो वैधर्म्यं चेतरस्य तु॥

देहात्मज्ञानवज् ज्ञानं देहात्मज्ञानबाधकम्।
 ::आत्मन्येव भवेद् यस्य स नेच्छन्नपि मुच्यते॥