भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्त्री होने का संकट / सविता सिंह

Kavita Kosh से
Linaniaj (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 00:22, 28 दिसम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सविता सिंह |संग्रह=नींद थी और रात थी / सविता सिंह }} किस द...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किस दौर में आ गई हूँ

पीले से लाल हो रहे मेपल के पत्ते की तरह आश्वस्त

समझती सुन्दर किसी इन्तज़ार को भीतर ही भीतर

समझती सारी इच्छाओं आकांक्षाओं की महीन बुनावट को

उसके हर ढंग को पहचानती

चुनने के लिए कोई एक नहीं मगर बाध्य

फैसला किए हुए

अब न जीतने की कोई इच्छा है

न हारने का भय

बस ख़ुद को पाने की उत्कंठा है


यह सब कर लेने का संकट ही मगर

स्त्री होने का संकट है

जो हर सपने का हो गया है