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मीरा / रचना त्यागी 'आभा'

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राधा बनने के स्वप्न दिखाए
मीरा भी न रहने दिया
मेरे प्रेम-प्रगाढ़ का तुमने
प्रियतम कैसा फल ये दिया!
तुम तो कृष्ण थे, कृष्ण रहे
लीलाओं में मग्न रहे
किन्तु उन घावों का क्या
जो तुम्हें पाने को मैने सहे?
पूरा जीवन कर डाला
भस्म प्रेम की ज्वाला में
निः संकोच हो किया पान
छब देख तुम्हारी हाला में
तुम कठोर तब भी न पिघले
निष्ठुर थे, निष्ठुर ही रहे!
किन्तु उन घावों का क्या
जो तुम्हें पाने को मैने सहे?
देते थे उपदेश जगत को
न करना फल की अभिलाषा
मैं मूढमति तब समझ न पाई
गूढ़ तुम्हारी यह भाषा
प्रेम-तपस्या विफल हुई
जल-प्रपात नयनों से बहे!
बोलो उन घावों का क्या
जो तुम्हें पाने को मैने सहे?
यह जन्म गँवा चुकी तो क्या
सौ जन्म पुनः फिर ले लूँगी
प्रेम-मुरलिया अधर लगाकर
वृन्दावन में खेलूंगी!
तभी भरेंगे घाव सभी
जो तुम्हें पाने को मैने सहे
और कह पाऊँगी गर्व से फिर
तुम मेरे थे, मेरे ही रहे!!