भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
केरा कै पात मोरा मन / हरिश्चंद्र पांडेय 'सरल'
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:26, 28 जुलाई 2014 का अवतरण
केरा कै पात मोरा मन, बैरी कै काँट न उगाओ।
अबहीं पियासे नयन, नयनन कै पलक न झपाओ॥
आह भरैं कहि जायँ बतिया सारी,
भाठी जराय देय लोहेउ कै आरी,
यनकै अनोखी अगिन, दुखिया कै आह न जगाओ।
मरुथल जिनिगिया है रेत निसानी,
बाढ़ै पियसिया तौ झलकै जस पानी,
छले जायँ भोले हिरन, कंचन घट बिख न भराओ।
दरद हमार मोरे जियरा कै साथी,
जरि गवा तेल मुला बरी नहीं बाती,
थकि चली साँस कै चलन, जोति गये दीप न जराओ॥