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मोर गवा गे गांव / रमेशकुमार सिंह चौहान

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मोर गवा गे गांव, कहूं देखे हव का गा।
बइठे कोनो मेर, पहीरे मुड़ी म पागा।।
खोचे चोंगी कान, गोरसी तापत होही।
मेझा देवत ताव, देख मटमटवत होही।।1।।

कहां खदर के छांव, कहां हे पटाव कुरिया।
ओ परछी रेगांन, कहां हे ठेकी चरिया।।
मूसर काड़ी मेर, हवय का संगी बहना।
छरत टोसकत धान, सुनव गा दाई कहना।।2।।

टोड़ा पहिरे गोड़, बाह मा हे गा बहुटा।
कनिहा करधन लोर, देख सूतीया टोटा।।
सुघ्घर खिनवा ढार, कान मा पहिरे होही।
कोष्टरउवां लुगरा छोर, मुडी ला ढाके होही।।3।।

पिठ्ठुल छू छूवाल, गली का खेलय लईका।
ओधा बेधा मेर, लुकावत पाछू फईका।।
चर्रा डुडवा खेल, कहूं का खेलय संगी।
उघरा उघरा होय, नई तो पहिरे बंडी।।4।।

कुरिया मोहाटी देख, हवय लोहाटी तारा।
गे होही गा खेत, सबो झन बांधे भारा।।
टेड़त संगी कोन, देख बारी मा टेड़ा।
हवय भाटा पताल, फरे का सुघ्घर केरा।।5।।

रद्दा रेंगत जात , धरे अंगाकर रोटी।
धोती घुटना टांग, फिरे का देख कछोटी।।
पीपर बरगद छांव, ढिले का गढहा गाड़ी।
करत बइठ आराम, देख गा मोढ़े माड़ी।।6।।

मोर गवा गे गांव, कहूं देखे हव का गा।
सबके मया दुलार, टूट गे मयारू धागा।
वाह रे चकाचैंध, सबो झन देख भुलागे।
‘रमेश‘ करत गोहार, गांव ले गांव गवागे।।7।।