भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नवा नवा सोच ले / रमेशकुमार सिंह चौहान
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:34, 6 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेशकुमार सिंह चौहान |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(यह रचना घनाक्षरी छंद में है)
हम तो लईका संगी, आन नवा जमाना के।
विकास गाथा गढ़बो, नवा नवा सोच ले।।
ऊॅच नीच के गड्ठा ला, आज हमन पाटबो।
नवा रद्दा ला गढ़बो, नवा नवा सोच ले।।
जात पात धरम के, आगी तो दहकत हे।
शिक्षा के पानी डारबो, नवा नवा सोच ले।।
भ्रष्टाचार के आंधी ला, रोकबो छाती तान के।
ये देश ला चमकाबो, नवा नवा सोच ले।।
दारू मंद के चक्कर, हमला नई पड़ना।
नशा के जाल तोड़बो, नवा नवा सोच ले।।
जवानी के जोश मा, ज्वार भाटा उठत हे।
दुश्मन ला खदेड़बो, नवा नवा सोच ले।।
हर भाषा हमार हे, हर प्रांत हा हमार।
भाषा प्रांत ला उठाबो, नवा नवा सोच ले।।
नवा तकनीक के रे, हन हमूमन धनी।
तिरंगा ला फहराबो, नवा नवा सोच ले।।