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कहल न जाय / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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जे कहितहुँ से कहल न जाय।
अकबक प्राण करै अछि भीतर, बोल कण्ठसँ नहि बहराय।

चारू दिस तँ नजरि खिराबी,
किन्तु मनुक्ख कतहु नहि पाबी,
हाथ पैर दुइएटा रखितहु
दानवसँ बढ़ि राखय दाबी,
करनी एकरा सभक देखिकऽ कुकरो वानर रहल लजाय।

पहुँचल अछि पन्द्रह अगस्त पुनि,
मन करैत अछि गुनिधुनि-गुनिधुनि,
देखत की, आतंकित अछि सब
देशक समाचार सब सुनि-सुनि,
हयत भविष्य कोना स्वर्णिम यदि वर्त्तमान केँ रहल लुटाय।

संजोगल छल स्वप्र मनोरम
सबकेँ तोड़ि देलक ई निर्मम,
ध्वस्त चतुर्दिक सकल व्यवस्था
तेँ लागल अछि सबकेँ दिग्भ्रम,
आबथु कृष्ण, जगाबधु सबकेँ पांचजन्यकेँ पुनि धुधुआय।