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संस्कृत ओ संस्कृति / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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जखन मनुज पशुवत जिबैत छल, छलै न ज्ञानक लेश,
तरू-छाया अथवा गिरि-गव्हरमे सहैत छल क्लेश,
तखन दृष्टि दय अनुपम, सुमधुर वचनक देलनि दान,
से थिक संस्कृत हमर धरोहर जे सम्प्रति म्रियमाण।
ऋषिगण अनुखन दर्शन चिन्तन में मन राखल लीन,
जकर अनादर कयनहि बनलहुँ सब बल-बुद्धि-विहीन,
जठरालन धधकैत रहल बरू, बिवसन रहल शरीर,
राखल तदपि जोगाय जतनसँ धीर वीर गम्भीर।
जाहि बलेँ एखनहु मनुक्ख बुझि रहल सगर संसार,
तकर पतन हा! परक नकल कय कहबी हम बुधियार,
भेल स्वराज, अपन अनुपम निधि आबहु धरिय जोगाय,
वैभव अतुल अछैत परभव एकर कहल नहि जाय।
जननी सकल प्रदेशक भाषा केर कनैछ निछोह,
पोसल पूत अनेक, बुढ़ारीमे बिसरल सब सोह,
कहब कतेह कहाँ धरि दुर्गति रूद्ध भेल अछि कण्ठ,
सज्जन दुर्गंजन सहैत छथि, पुजा रहल सब लण्ठ।
भाषा-भूषा खान-पानमे रहितो रूप अनेक,
रहल सदा आसेतु हिमालय संस्कृतिमे ई एक,
ताहि मूल पर किछु उत्याती अछि करैत आघात
नत-मस्तक रहितय से उनटे चला रहल अछि लात।
संस्कृत ओ संस्कृतिमे चिरदिन सँ अटूट सम्बन्ध,
संस्कृति-हीन समाज कहाबय आँखि अछैतो अन्ध,
आइ सांस्कृतिक परम्पराकेँ लेलहुँ किदन बनाय,
देखू देशक चरण गर्त्तमे दिन-दिन धसले जाय।