स्वर्ण जयन्ती वर्ष / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
महावीर फुकलनि लंकाकेँ बहल पवन उनचास।
उनचासम गणतन्त्र दिवस पर हो एहने आभास॥
रहथि अशोक-वाटिकामे सीता आ वन मे राम,
एहि दशालै के दोषी, से जानथि सीताराम,
दलदलमे अछि धसल सकल दल छोड़य दीर्घ निसास
उनचासम गणतन्त्र दिवस पर हो एहने आभास।
डबरा छोड़ि छोड़ि पोखरि दिस छरपय ढाबुस बेङ,
बगुला संग ढो ँढ़ आ बेङची जोति रहल अछि गेङ,
काँकोड सेही किछु पयबालै पोसय मनमे आश,
उनचासम गणतन्त्र दिवस पर हो एहने आभास।
जनताकेर नजरिमे सम्प्रति छैक कोन उत्कर्ष?
ढम-ढम ढोल नङाड़ा पर अछि स्वर्ण जयन्ती वर्ष,
लोकक जान छोड़ि, सब वस्तुक दाम चढ़ल आकाश,
उनचासम गणतन्त्र दिवस पर हो एहने आभास।
ओर छोर नहि तोड़-फोड़केर भेल कते गठजोड़
किछु धकिआबय जकरा किछु धयने अछि तकर पछोड़,
कतहु मचल हड़कम्प, कतहु सुस्पष्ट विरोधाभास,
उनचासम गणतन्त्र दिवस पर हो एहने आभास।
अपन पीठ सब अपने ठोकय करय मदारी खेल
एतय लोककेँ भेटि न रहले लालटेममे तेल,
गाम-गाम धरि बिजली खम्भा केवल लुप्त प्रकाश,
उनचासम गणतन्त्र दिवस पर हो एहने आभास।
देशक मतदाता सब केँ छनि करइत अकबक प्राण
एहि अराजकताक पंकसँ कोना के त्राण,
पंकेसँ पंकज जनमै छै मनजनु करिय उदास,
उनचासम गणतन्त्र दिवस पर राखथु से विश्वास।