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एकरे लोक बिहाड़ि कहै छै / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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सुनै छिऐ दस लोकक मुँहसँ
एकरे लोक बिहाड़ि कहै छै।
पहिने दम सधने रहैत छै
दसो दिशा भयभीत भेल सन,
ऊमसमे कण्ठो सुखाइ छै
चित्त रहै छै तीत भेल सन,
सहसा प्रबल प्रचण्ड पवन
वन-उपवनकेँ झकझोरि दैत छै,
प्रकृतिक कोमल अंग-अंगकेँ
ठामहि पकड़ि मचोड़ि दैत छै,
बड़का-बड़का गाछ-वृक्ष सब एकर डरेँ बपहारि कटै छै।
एकरे लोक बिहाड़ि कहै छै।
देखिते-देखिते उन्नटि जाइ छै
बड़का-बड़का पड़ल गेँड़ सब
अड़रा-अड़रा टूटि खसै छै
मोटका-मोटका सबल फेँड़सब,
फूल, पात, ठहुरीक बात की,
जड़िसँ सीर उपाड़ि दैत छै,
सिंहक बच्चाजकाँ कते
दिग्गजकेँ पकड़ि पछाड़ि दैत छै,
ठाढ़े ठाढ़ चितंग भेलजे तकरे असली हारि कहै छै।
एकरे लोक बिहाड़ि कहै छै।