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पर्ची / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

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कोटि-कोटि प्रणाम के बाद
हुजूर की सेवा में अरज है-
माफ़ कीजिएगा, इस साल मालगुज़ारी चुकाने को
रत्ती भर भी धान नहीं।

खेत के खेत दरक गये हैं
दूर-दूर तक जहाँ तलक जाती है नज़र
रीत बये हैं नाले और नहर
सूखे पड़े हैं जोहड़
आँखों में ठहरा है खारा समन्दर।

कौन पसारे हाथ भला किसके आगे,
खस्ता है सबकी हालत और बिसात
तीन-तीन दिन रहकर भूखे-प्यासे,
कई दिनों से पेट में झोंक रहे हैं जगली पात।

चीथड़ों से ढँकी नहीं जा सकती
देह की लाज।
बर्तन-भाँड़े बेच दिये सब
जो कहने को थे अपने पास।

इस दुर्दिन में, देनदारी की उगाही
रखें महाराज मुल्तवी
ठीहे में ख़ामख़ाह न घुस पड़ें
हथियारबन्द प्यारे और बन्दूकची

इस मौजे में यही कोई
हज़ार-एक रैयत होंगे
जो मिल करके सोच रहे हैं
कैसे जान बचाई जाए?

सुलग रहा है पेट और झुलस रहा है खेत
तो कौन चुकाएगा लगान?
इस बार हमें बचाया नहीं गया हुजूर
तो फिर जलकर रहेगी आग।