भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इस समाधि की राखों में / केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:05, 11 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' |अनुवादक= |...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस समाधि की राखों में,
उन्माद किसी का सोया है!
कितनी बार यहां आकर,
बेजार किसी ने रोया है!
तड़प चुका है थाम कलेजा,
इन चरणों में कितनी बार!
अरे, यहीं आकर अपना,
सर्वस्व किसी ने खोया है!
तू है रूप-किशोर और,
मैं तो तेरा मतवाला हूं;
इस समाधि-मंदिर का मैं ही,
अलख जगानेवाला हूं!
आए ऋतुपति पर न खिलीं ये
मंजुल-कलियां वनमाली!
क्या इस बार न पान करेंगे
अलि मधुमाधव की प्याली!
कूक रहीं आतुर-आशाएं,
पिकी-सरीखी डालों पर;
कौन लुटावेगा जीवन-निधि,
प्यार-भरी इन चालों पर?
उस अतीत की सुख-समाधि पर,
हृदय-रक्त के छींटे फेंक!
यह ऋतुपति क्यों आज कर रहा,
पतझड़ का उदास-अभिषेक!