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भेद रहा है चक्रव्यूह रोज / मनीषा जैन
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वह ढ़ोता रहा
दिनभर पीठ पर
तारों के बड़ल
जैसे कोल्हू का बैल
होती रही छमाछम
बारिश दिन भर
टपकता रहा उसका
छप्पर रातभर
होता रहा
उसका बिस्तर
पानी-पानी
दिल उकसते ही
वह फिर चला गया
मानों चक्रव्यूह को भेदने।