Last modified on 18 अगस्त 2014, at 19:07

बेटी बनलि पहाड़ / कालीकान्त झा ‘बूच’

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:07, 18 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कालीकान्त झा ‘बूच’ |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

गेलै कतऽ विवेक विचार
भेलै केहेन लोकाचार
हाथक फुलडाली सन बेटी बनलै
माथे परक पहाड़...

प्राणो सँ जे अधिक पियरगरि,
पोसलि गेली अंक मे भरि-भरि
काल्हुक ई दुलरैतिन बेटी
आइ घैल बनि लागलि घेंटी
आगाॅ भोगक पोखरि
पाछाॅ अपमानेक इनार...

बेटी अहाँ बेटों सँ बढ़िक'
अयलहुँ उड़नखटोला चढ़िक'
अपने तों लक्षमिनियाँ देवी
बापक मुँदा सुन्न छह जेबी
हे देखू हरि गरूड़ त्यागि कऽ
मांगि रहै छथि कार...

कम्मे दामे भीठ बुड़यलहुँ
सोना पैंतीस ग्राम पुड़यलहुँ
ब्याह रातिक खर्चा चाही
बरियाती औता दस गाही
बाहर भीतर बल्ब जड़ै अछि
माँझे ठाम अन्हार...

मंगलनि दशरथ एक पाइ नहि
बजला किछु रामो जमाइ नहि
श्री कृष्णक तऽ लव मैरेज छल
हिस्ट्री हमर केहेन सुन्नर भल
मुदा आइ वृषभानु जनक
 कऽ रहला हाहाकार...

बेटा बनलै बेबस बकरा
बापे कंठ पकड़लनि तकरा
जीवन जब्बह भेल मनुक्खक
मानवता रहतै ककरा लग
घ'र घ'र मे बूचरखाना
गामे गाम बजार...