Last modified on 20 अगस्त 2014, at 16:26

तू चल मेरे साथ रे! / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:26, 20 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’ |अनुवादक= |...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

तू चल मेरे साथ रे!
कला आजकी बिकती जाती
हृदयहीन के हाथ रे!
युग चलता है अपने पथ पर
तू उठ, चल अपने पग-रथ पर
यह तो पहुँच चुका है ‘इति’ पर
पर, तू तो है इसके ‘अथ’ पर
चलते चलते रात कटेगी
होगा उज्ज्वल प्रात रे!
चलने की जो चाह बनी
तो फिर लाखों राह बनी है
मंजिल तक जाने को आकुल
दुनिया लापरवाह बनी है
एक एक कर युग बीतेगा
दिन की कौन विसात रे!
तू चल मेरे साथ रे!
जीवन क्या? चिनगारी है यह,
जलने का अधिकारी है यह,
सुलझाकर उलझनें सभी,
जय पाने की तैयारी है यह
आततायियों पर होने
वाला है वज्र निपात रे!
तू चल मेरे साथ रे!
साहस औ’ विश्वास मिला है
मन में अतुल प्रकाश खिला है
पूरब से लेकर पच्छिम तक
धरा हिली, आकाश हिला है
दुख के घन फटने वाले हैं
बीत चली बरसात रे!
तू चल मेरे साथ रे!