प्राणक मोह / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
माङै भीख अबइ छलि सब दिन
बुढ़िया परम बूढ़ि
खोंचड़ि सन
हड्डी सहित सुखा
जारनि सन भेल छलैक
डेढ़ हाथक छलि
‘बौआ लोकनि दिअऽ किथु दू ता’
भरल विषाद स्वरेँ
कहि बुढ़िआ
भभ जोर सँ हँसिओ दइ छलि।
एक दिनुक ई घटना देखल
हम अपना आँखिएँ एक ठाँ
अबतहिं बुढ़िआ केँ दुआरि पर
सरपल छौड़ा पहुँचल लग मे
छल ओ छौड़ा महा हँसक्कड़
पुछलकैक बुढिआ केँ जा कै
की गै बुढ़िआ!
कोना रहइ छेँ
बहुतो दिन बितलउ
नहिं ऐलेँ कोन कारणेँ ?
आइ कहाँ सँ आबि रहल छेँ
निके रहइ छेँ किने शरीरेँ ?
जा बुढ़िआ उत्तर देबा लै
मुँह सरिऔलक
ताबत छैाँड़ा फेर पुछलकइ
कते भेल छउ आइ तोरी मोटरी चाउर
उसिने टा छउ
की छउ अरबो ?
गूड़ लबइ छी हम दू पाइक
दूनू गोटे भिजा कै फाँकब
की विचार से कह तोँ झट दै।
‘‘हमर दाँत तूतल अथि बौआ!
हमरा किथुने होइऐ फाँकि’’
विषम स्वरेँ बाजलि बुढ़िआ
पुनि कनिये ताकि
फेर भभा देलकइ ताहि पर
चट दै छैाड़ा पूछि वैसलइ
‘‘बुढ़िआ! आब भेलेँ बढ़ बूढ़
तोँमर,
हम सब करबउ मिलिकै बढ़िया जकाँ सराध
भोज भात बड़कीटा, करबउ
बड़ी, बड़, सकड़ौरी, पापड़,
नोति देबउ जयवार समूचा
तोरा नाम पर,
तोँ ही पहिने कहने जइहे
ककरा ककरा नोंत देबइ से,’’
पहिने बुढ़िया आँखि उठा कै,
गुड़रि, ओहि छौड़ा दिस ताकि
बाजलि गुम्हड़ि जोर सँ
‘‘तोँ ही दइथह अपन कपार मे
तहिया बैथलि रहब एतै हम?
हिनके भारी लगइ थिअनि दें।’’
मनहिं मनहिं हम सोचै लगलहुँ
ई थिक प्राणक मोह
रहौ दशा कतबो अधलाहे
तैओ लोक एहि जीवन सँ
नहिं ने होइछ हताश।