भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अहसास का घर / कन्हैयालाल नंदन
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:54, 21 जुलाई 2006 का अवतरण
लेखक: कन्हैयालाल नंदन
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*
हर सुबह को कोई दोपहर चाहिए,
मैं परिंदा हूं उड़ने को पर चाहिए।
मैंने मांगी दुआएँ, दुआएँ मिलीं
उन दुआओं का मुझपे असर चाहिए।
जिसमें रहकर सुकूं से गुजारा करूँ
मुझको अहसास का ऐसा घर चाहिए।
जिंदगी चाहिए मुझको मानी* भरी,
चाहे कितनी भी हो मुख्तसर, चाहिए।
लाख उसको अमल में न लाऊँ कभी,
शानोशौकत का सामाँ मगर चाहिए।
जब मुसीबत पड़े और भारी पड़े,
तो कहीं एक तो चश्मेतर** चाहिए।
- - सार्थक
- -नम आँख
- -नम आँख