भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जाको धन, धरती हरी / गिरिधर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:30, 10 सितम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गिरिधर |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKundaliyan}} ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
जाको धन, धरती हरी, ताहि न लीजै संग।
ओ संग राखै ही बनै, तो करि राखु अपंग॥
तो करि राखु अपंग, भीलि परतीति न कीजै।
सौ सौगन्दें खाय, चित्त में एक न दीजै॥
कह गिरिधर कविराय, कबहुँ विश्वास न वाको।
रिपु समान परिहरिय, हरी धन, धरती जाको॥