भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

किसी पल के इंतज़ार में / कुमार मुकुल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:32, 30 सितम्बर 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

विवेकानंद को नहीं देखा मैंने
पछाड खाते समुद्र को भी नहीं
हिमालय को देखा है
पर दूर से

पर नदियां देखी हैं मैंने
नदियों की सपनीली आंखें देखी हैं
उनमें देखें हैं सपने समंदर के
और कछारों में
अस्थि‍यां हिमालय की

क्या बादल एक दिन हिमालय को
डुबो नहीं देंगे समुद्र में
फिर नदियों के पास क्या काम रह जाएगा
निठल्ली, मर नहीं जाएंगी वे
फिर कैसे पछाड खाएगा समुद्र
वैसे विराट मृत समय में क्या करेंगे हम ।

गर्भ देखेंगे धरती का
शायद वहां हों ज्वालामुखी
किसी पल के इंतजार में ।

1993