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शब्द और सपने / सुमन केशरी

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(1)
वह पलकों से सपने उतरने का वक्त था
जब मैं उठी
और सभी सपनों को बांध
मैंने उन्हें जागरण की गठरी में बंद कर दिया
सपने अब जागरण में कैद थे

जागरण में आसमान से गिरते झुलसे
पंख लिए पक्षी थे
जो चूहे बन दफ्न हो रहे थे जमीन में
गोलियों की धांय-धांय के बीच

अब सन्नाटा था
और उसे चीरती मेरी चीख थी
जो स्वप्न और जागरण की संधि से फूटी थी
शब्द कहीं नहीं थे...

2)
सपने में शब्द
एक एक कर दफ्न किए जा रहे थे
जागरण की जमीन में
पानी कहीं नहीं था

सदियों बाद हुई खुदाई में
बस हवा की सांय-सांय थी
सांय-सांय-सांय-सांय
पानी तब भी कहीं नहीं था

(3)
सपने में शब्द पक्षी थे
हाराकिरी करते पक्षी
उनकी चोंच और आंखें लहूलुहान थीं
हवा उनकी नर्म देह जमीन पर बिछने से
पहले ही सोख ले रही थी
उनके पंखों की गर्मी और देह की गंध
अब सपने में भी सांस ले पाना दूभर था...

(4)
सपने में शब्द
अपनी नुकीली जीभ से
पृथ्वी खोद रहे थे

पेड़ों की जड़ें
अनावृत जंघाओं-सी उघड़ी पड़ी थीं
रक्त से सूरज लाल था
दिशाएं कांप रही थीं
थर्राई अग्नि सागर में जा छिपी थी
वाचाल हवा
बौराए शब्दों की ट्टचाएं रच रही थी
पत्ते निःशब्द थे...

(5)
सपने में शब्द
सबकी आंखों से सपने समेट
जल सोख रहे थे
सोख्ते के आसमान से

आसमान में न सूरज था, न चांद, न तारे

जागरण में अब
न शब्द थे, न सपने, न पानी

(6)
पृथ्वी के वक्ष पर
बहते अनिल के खोखल में
धूप ने भर दिया उजास
बादलों ने छाया
पेड़ों ने सारा रंग
चिडि़यों ने कलरव
नदी ने कलकल जीवन
चांद-तारों ने सपने की ओट में
ले ली सारी सृष्टि
सृष्टि अब हवा में भर रही थी नाद
यह शब्द-समय था...