Last modified on 5 अक्टूबर 2014, at 09:50

कोजागरी / उत्पल बैनर्जी / मंदाक्रान्ता सेन

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:50, 5 अक्टूबर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मंदाक्रान्ता सेन |अनुवादक=उत्पल ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सिर के भीतर कल रात
जितने कंगन बज उठे थे
मैंने सपने में
उनके सुरों को खोल-खोल कर देखा था
सुरीली चाँदी-जैसे गहने, कमसिन चाँद ...
गुजरीपंचम में उसके कोमल गांधार लग गया था

मैं उस जुन्हाई को, उस जादू को
अपने दिमाग़ में बचाए रखती हूँ

सिरहाने गंुजा की माला ने
गठानें खोलकर झटक दिया था आसमान,
भोर रात के सपने!
तब भी तुम्हारे नक़्क़ाशी के काम में
थोड़ी-सी... गीली... मिट्टी... लगी हुई थी।