भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

महाकवि निराला - एक / नज़ीर बनारसी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:31, 16 अक्टूबर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नज़ीर बनारसी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हूक दिल से उठी आँख नम हो गयी
आज गंगा की इक मौज कम हो गयी

माँ तिरे साज़ का तार टूटा है क्या
बात आव़ाज में ज़िन्दगी क्यों नहीं
क्यों है मुरझायी ’जूही’ की हर इक कली
आज ’बेला’ के मुँह पर हँसी क्यों नहीं

’गीत गूँज इस क़दर आज मद्धम है क्यों
कैसा संदेश गायक के नाम आ गया
शोक में क्यों है ’आराधना’ ’अर्चना’
क्या कोई ’शक्तिपूजा’ के काम आ गया

होश में लाग आने लगे वो भी कब
उसने जब खो दिये अपने होशो-हवास
मौत ने कर दिया जब निगाहों से दूर
तब कहीं लोग आये हैं आज उसके पास

उसने हमको दिया जब नया रास्ता
बनके दुश्मन हमारे क़दम उठ गये
तेग़ <ref>तलवार</ref> तो उठ न सकती थी उसके खि़लाफ़
उसके बर अक्स <ref>विरूद्ध</ref> कितने क़लम उठ गये
कोइले पर अशरफ़ी की मुहरें लगीं
पारखी चुप था साहित्य संसार का
वो ख़रीदार पागल बनाया गया
जिसने ऊँचा किया भाव बाज़ार का

शब्द उसके अटल जैसे अंगद के पाँव
कल्पना में हिमालय की ऊँचाइयाँ
उसकी चुप उसकी गम्भीरता की दलील
उसके दिल में समुन्दर की गहराइयाँ

सबको हँस-हँसकर के देता रहा ज़िन्दगी
और खु़द ज़हर के घूँट पीता रहा
वक़्त न कर दिया साँस लेना मुहाल
ऐसे वातावरण में भी जीता रहा

सबको दी जिस ने ’जूही’ की ताज़ा कली
उसको मेरी तरफ़ से भी श्रद्धांजली

शब्दार्थ
<references/>