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महाकवि निराला - दो / नज़ीर बनारसी

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अलग उसका रस्ता उसकी मंज़िल
निराली डगर और राही ’निराला’
अजब सूर्य डूबा हे हिन्दी जगत में
जो डूबा तो कुछ और फैला उजाला
वो चुप हैं तो सबकी जु़बानें खुली हैं
है इक शोर बरपा ’निराला’ ’निराला’
हमेशा महकता-गमकता रहेगा
मुहब्बत का मंदिर अदब का शिवाला
नहीं वो मगर उसका शोहरा रहेगा
वो ज़िन्दा था ज़िन्दा रहेगा
भुला देगा कितनों को इतिहास लेकिन
जो जीने के क़ाबिल है जीता रहेगा
वो बहके तो बेहोशियों ने सम्भाला
न आएगा इस ज़र्फ़ का पीने वाला
कोई पा सकेगा न अब उसकी मदिरा
कोई छू सकेगा न उसका प्याला
कभी जीते जी उसने झुकना न जाना
बड़ी आन वाला बड़ी शान वाला
जहाँ चाहा फ़रज़ानगी ने गिराना
वहाँ बढ़के दीवानगी ने सँभाला
खटकता था आँखों में जो ख़ार बन कर
उसे आज दिल की कली दे रहे हैं
न लेने दिया चैन की साँस जिसने
उसे वो भी श्रद्धांजली दे रहे हैं ।

शब्दार्थ
<references/>