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बीज-संवेदन- 6 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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मेरे स्वप्नशील मन ने
       मुझसे कहा
       दूर दिगंत में उड़ते पक्षी-सा
       उड़ने की जो आकांक्षा
       तुमने पाल रखी है
       उसे तुम अब पूरा कर ही डालो
       उसकी परतें उघाड़ कर
       बस तुम उड़ ही लो.
                  
       बात मेरी समझ में आई
       थोड़ी देर के लिए
       मैं आवेग से भर गया
       आकर्षण से विरत अपने में सिमट गया
       मेरे दृष्टि-पथ में
       अब केवल आकाश ही था.

       समुद्रलंघी हनुमान की तरह
       मैंने ठोस धरती के
       एक टुकड़े का चुनाव किया
       और उड़ने की मुद्रा बनाकर
       आकाश में छलांग लगा ही दी
       लेकिन अफसोस
       यह उड़ान भरी न जा सकी.

       मैं स्तंभित रह गया
       आखिर चूक हुई कहॉ
       मैंने धरती को छुआ
               
       उसमें वांछित ठोसपन था
       अपने गिर्द को टटोला
       मैं किसी भी छोर से बँधा न था
       चिंता में मेरे हाथ
       मेरे पैरों से छू गए
       मैंने महसूस किया
       उड़ानों के लिए वांछित ठोसपन
       इन पैरों में नहीं था
       हृदय से मस्तिष्क तक का गुरुत्व
       जो मेरे पोरों को भी जोड़ता है
       कहीं लिजलिजा है.

       मैंने अपने को रोका
       और इस लिजलिजेपन को
       एक रीढ़ देने की कोशिश की
       मेरी कोशिश अभी भी जारी है
       मुझे उम्मीद है
       मेरा संकल्प रंग लाएगा
       और मैं आकाश में उड़ सकॅूगा
       और लोगों को
       उड़ने का स्वप्न बाँट सकॅूगा.