Last modified on 11 नवम्बर 2014, at 18:36

परायापन / शुंभुनाथ भट्ट ‘हलीम’

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:36, 11 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शुंभुनाथ भट्ट ‘हलीम’ |अनुवादक=रत...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

क्या तुम वही नहीं हो जिसको मेैंने शुरू से ही चाहा
तुम आँखों से ओझल हो जाती तो तड़प् जाता था मेरा दिल
खिल उठती थी मेरे हृदय की फुलवारी तेरी हँसी से
और परेशान करती मुझे तेरे माथे की शिकन
तेरे बिखरे केश मुझे बावला कर देते
और तेरा ठंडा व्यवहार मुझे भी ठंडा कर देता था
यदि मैं तेरे चेहरे पर लालिमा देखता उभरती
मैं फूले न समाता कि मुझसे ग्रहण उतर गया है
तुम जब कभी हल्क-हल्के पग भरती निकल जाती
डर जाता मैं कि तुझे किसी की नज़र ना लगे
मेरे हृदय का कबूतर भरता उड़ान तेरे प्यार में
तुम जब कभी मुझे ‘आओ प्रिय’ कह कर बुलाती
ऐसे लगता जैसे पहाड़ी नदी बल खाती बह आई है
तुम जब मेरी ख़ातिर पलटकर देखती
ज्यों जलधारा झरझराती ऊँचाई से गिरती
तेरे घुँघरूओं पर बनजे की बेकली छा जाती
आता वही सुगंध लेकर हवा का झोंका
जिस सुगंघ ने मुझे बनाया था दीवाना तेरा
‘फुलय’ <ref>फलदार पेड़ों पर लगने वाले फूल</ref> देखकर वह तेरा चेहरा याद आता मुझे
जो मुझे देखते ही खिल उठता
मेरे बोलों की नक़ल उतारने बाल उठती कोयल भी
जब तक तू पर्वतों और टेकरियों से घूम फिर आती
‘गुलालों’<ref>लाल रंग के फूल जो गेहूँ आदि के खेतों में स्वयं अग जाते हैं</ref> के बीचजब तू चलती बल खाकर
अनजाने में मुझे अपने वश में कर लेती
क्या जादू था तेरी हंसिनी देह में
कि मुझ अनजान को मंत्रबिद्ध कर देती
फूलहारे की संगति में ही फूल का जोबन खिल उठता है
ज्यों गंभीर भी हो नदी फिर भी उसमें रवानी आती है
पगले, फूलों के काँटों से गले लग रहे हो, ये तुम्हें छिन्नभिन्न कर देंगे
पर मिलता नया संगीत, नया साज़ और नए तराने
यौवन को मदमस्ती मिलती और तेज की आँखें नम हो जातीं
जैसे छाया ग्राीष्म को सांत्वना देती निश्चिन्त रहो
भौंहो में वक्रता आती, आँखों में मस्ती और माथे पर चमक
होंठ रसीले होते, चेहरे पर लालिमा छिटकती और दिल में चोरी

पर वह चुपके-से अनायास मुस्काना
पाँव में पायल की जं़जीर पड़ी हो जैसे पर संगीत हो मुक्त
गला गलबंदनी से बँधा फिर भी हृदय खिला-सा

तेरा वह ‘वनवुन’ जो मुझे लड़कपन से ही मोहित करता रहा
जीते जी कैसे भूल पाऊँ उसे
परंतु आज मुझे क्यों लगता है परायापन
हमारे दिलों को दूर रखने की कोई साजिश-सी हुई है जैसे
कहीं मेरे शत्रु के बहकावे में तो नहीं आई
इच्छाओं आकांक्षाओं की तू चिड़िया, तुझे जाल में फाँस तो नहीं दिया
तुझे मेरे जानी दुश्मनों ने कुछ कहा तो नहीं

कहीं तुझे मेरा मन बदलने का आभास तो नहीं हुआ
मैं जानता हूँ कि प्रेम कोई सामयिक उफान नहंीं होता
दिलों का मिलन एक आदिकालीन बेकली है
भाग्य या समय की आँधी इसे रोक नहीं सकती
संसार का अंत है निश्चित परंतु नहीं है अंत प्रेम का
यह सब कुछ जानकर भी क्यों मेरी नज़रे धुँधआई हैं
कहीं मैं अपनी सादगी से ही तो नहीं भटका

शब्दार्थ
<references/>