दुखद निराशा गीत रे! / राधेश्याम ‘प्रवासी’
व्यथित हृदय में प्रति चल बजते,
दुखद निराशा गीत रे!
वह कर तरणी चली कि जिसकी छुट गई पतवार अरे,
महा प्रलय का हास चतुर्दिक ले गूँजी शत धार अरे,
बैठा रहे हैं, जग - सागर में जन्तु सदृश सब अपने!
हार हुई है जिसे समझता था,
है मेरी जीत रे!
शून्य गगन को देख रहा है निज का करके अंकन,
हृदय सिन्धु का बढ़ता जाता क्षण प्रतिक्षण स्पन्दन,
स्पन्दन में हहर रहा है अट्टहास झंझा का,
झंझाओं में छहर रहा है अश्रुपात नयनों का!
दूर आदि से आलिंगन,
करता है मूक अतीत रे!
कहीं वियोगी से पीड़ित हो जलद दूत बन आये,
जो कोमल किसलय से उर पर तड़ित बज्र बन छाये,
निकल पड़ीं कुछ ज्वलित उसाँसें दृष्टि शून्य में खोयी,
एक आह भर कर अन्तर में स्वप्निल जग में सोई,
बोला अन्तर परदेशी भी,
कभी हुआ है मीत रे!
अतृप्तता व्यथा, जीवन में उलझी हुई निराशा,
विक्षिप्तता परिधि के ऊपर मानव मृग-सा प्यासा,
झन-झन करके गिरी शृंखला फटी यवनिका लख के,
टप-टप करके गिरे अश्रु रोया मानव जी भर के!
अश्रु-पात की कल-कल में,
गा उठी नियति संगीत रे!
जब जीवन है जटिल पहेली समाधान फिर कैसा,
जब अन्तिम लय इति में होगी अथ का चिंतन कैसा,
आहत तप्त क्यों जग में उल्टी भरता आहें,
ज़मी-जनाज़ा-क़फन-आसमा देख बदली राहें!
समझ रहा हूँ, समझ चुका हूँ,
फिर क्यों मन भयभीत रे!
उदय हुआ यदि प्राची पर तो अन्त प्रतीची पर है,
जहाँ जनम है खुशी लिये इति क्रन्दन में निश्चित है,
अथ में इति, इति में अथ मिलकर उखड़ चुके हैं डेरे,
भटक शून्य में जीवन कहीं लेने जा रहे बसेरे!
फिर जग के बन्धन -विधान पर,
यह कैसी परतीत रे!