भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरे दिन की शेष छाया / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:42, 18 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रवीन्द्रनाथ ठाकुर |अनुवादक=धन्य...' के साथ नया पन्ना बनाया)
मेरे दिन की शेष छाया
बिलाने मूल-तान में
गुंजन उसका रहेगा चिरकाल तक,
भूल जायेंगे उसके मानी सब।
कर्मक्लान्त पथिक जब
बैठेगा पथ के किनारे कहीं
मेरी इस रागिणी का करुण अभास
स्पर्श करेगा उसे,
नीरव हो सुनेगा झुकाकर सिर;
मात्र इतना ही अभास में समझेगा,
और न समझेगा कुछ-
विस्मृत युग में दुर्लभ क्षणों में
जीवित था कोई शायद,
हमें नहीं मिली जिसकी कोई खोज
उसी को निकाला था उसने खोज।
कलकत्ता
प्रभात: 13 नवम्बर, 1940